न्याय, स्वतंत्रता, समता : आज़ाद भारत में दलित
- Alipore Bomb Trial, 1908 -1910 : A Compilation of Unpublished Documents, Vol 1
- न्याय, स्वतंत्रता, समता : आज़ाद भारत में दलित
Binding:Paperback (Hindi)Size: 215x140 mm
Pages: 172Year:
विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक मुल्क को आज़ाद हुये 70 साल से ज्यादा बीत गए है, पर अभी भी मुल्क में सभी के लिए न्याय दूर की कौड़ी है, जिसकी बड़ी वजह है जाति जो अभी भी देश के 125 करोड़ लोगो के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन का निर्धारण करती आ रही है|
संसाधनों पर पकड़ और ताकत के साथ साथ सत्ता के गठजोड़ और प्रभाव के चलते बहुधा निःसहाय वंचितों, विशेष रूप से दलित (अस्पृश्य) जो कि निर्धनता और अशिक्षा से पीड़ित हैं को न्याय नहीं मिलता है। दलितों पर अत्याचार और उत्पीड़न, अवैध वसूली, गहरी पैठ वालों के विरुद्ध शिकायतें दर्ज न करना, झूठे आरोपों पर मनचाही गिरफ्तारियां, अवैध बंदी और कारागार में मृत्यु रोजमर्रा की बात है।
ग्रामीण भारत में जहाँ आधुनिक सामाजिक आडिट प्रणाली गायब है, कानून के रखवाले बहुधा ‘पुलिस राज’, का हौव्वा खड़ा करते है। पंगु राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और इसकी राज्य शाखाओं के पास सीमित अनुशंसनात्मक नियंत्रण और एक दुष्क्रियाशील कानूनी सहायता प्रणाली वास्तव में निराशाजनक छवि का निर्माण करते हैं।
मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, जहां पर दलितों के विरुद्ध सबसे अधिक अपराध की दर होती है, से केस स्टडी का उद्धरण देते हुए, वरिष्ठ और अनुभवी मानवाधिकार कार्यकर्ता लेनिन रघुवंशी एक रोचक तरीके से लिपिबद्ध करते हैं कि किस प्रकार प्रशासन के अव्यक्त समर्थन से उच्च जातियों के लोग दलितों पर अत्याचार करते हैं और उनका अपमान करते हैं, जैसे जूतों की माला पहनना, उनके चेहरों पर कालिख पोतना या गधे पर बैठना; फिर भी अधिकांश मामलों में हंसिये पर पड़े और वंचित समुदाय के विरुद्ध की गयी हिंसा, मृत्यु या हिरासत में उत्पीड़न दर्ज ही नहीं होते हैं।
विडम्बना है कि औपनिवेशिक दासता से मुक्त होने के बाद भी, हमारे प्रशासनिक ढाँचे में जहाँ बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है, यह विरासत के रूप में मौजूद है जिसके चलते स्वतंत्र भारत के ग्रामीण हिस्सों में कई सरकार समर्थित परियोजनाएं विफल हो जाती है।
पेशे से एक आयुर्वेदिक चिकित्सक लेनिन रघुवंशी वाराणसी और उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग, भारत, में बाल श्रम और अन्य सीमान्त लोगों के अधिकारों पर कार्य कर रहे हैं। वर्ष 1996 में वह और उनकी पत्नी श्रुति ने एक समुदाय आधारित संगठन मानवाधिकार जन निगरानी समिति/पीपुल्स विजिलेंस कमेटी आन ह्यूमन राइट्स (पीवीसीएचआर) की स्थापना की ताकि पारंपरिक मलिन बस्तियों और गावों के बंद व सामंती पदक्रम को तोड़ा जा सके एवं स्थानीय न्याय, बंधुत्व व गरिमा पर आधारित स्थानीय संस्थाओ का निर्माण हो और उनका हाई प्रोफाइल और सक्रिय मानवाधिकार नेटवर्क से समर्थन किया जा सके।
अशोका फेलो होने के साथ लेनिन संयुक्त राष्ट्र युवा संगठन (यूएनवाईओ), उत्तर प्रदेश (भारत) अध्याय के 23 वर्षा की उम्र में अध्यक्ष बने । लेनिन के काम को 2007 के ग्वान्जू मानवाधिकार सम्मान के लिए मान्यता दी गयी। वर्ष 2007 में डेनमार्क के यातना पीड़ितों के लिए डिग्निटी: डेनिश इंस्टिट्यूट अगेंस्ट टार्चर के सहयोग से लेनिन के भारत में यातना उत्तरजीवियों के लिए टेस्टीमोनियल थेरेपी का माडल विकसित किया। जर्मनी में वाईमर की नगर परिषद ने लेनिन रघुवंशी को 2010 के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मान के लिए चुना।
अभी हाल में न्यायमूर्ति श्री संतोष हेगड़े की अध्यक्षता वाली जूरी ने लेनिन को दलित व वंचित के मानवाधिकार में उत्कृष्ट कार्य के लिए एम ए थॉमस नेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड से नवाज़ा है| वही बालाधिकार में उत्कृष्ट कार्य के लिए वोकहार्ड फाउंडेशन ने 2016 में वर्षा का बलाधिकार कार्यकर्ता के रूप में चयनित किया है| सांप्रदायिक फासीवाद, नवउदारवाद व जातिवाद के संयुक्त गठबंधन के खिलाफ संघर्षरत लेनिन के नवदलित आन्दोलन के लिए जर्मनी के संसद की उपाध्यक्ष सुश्री क्लौडिया रोथ ने सराहा है|